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Majarooh sultanpuri: 20 सदी के सबसे मशहूर और इंकलाबी शायर मजरूह सुल्तानपुरी जिन्होंने अपने दम पर उर्दू शायरी में एक नया फन पैदा किया। जो लोगों के लिए एक नया मिशाल बना। मजरूह सुल्तानपुरी 1 अक्टूबर 1919 को सुल्तानपुर में पैदा हुए थे। इनका असल नाम असरार हसन खान था इनके वालिद का नाम मोहम्मद हसन ख़ान था जो पुलिस में एक मुलाजिम थे। मजरूह अपने वालिद के इकलौते बेटे थे। इस दौरान अंग्रेज़ी हुकमत थी । इनके पिता जी ने इनका दाखिला एक मदरसे में करा दिया जहां से इन्होंने ने उर्दू और अरबी पढ़ना लिखना सीखा । उसके कुछ साल बाद मजरूह ने एक बड़े कॉलेज से हकीम की डिग्री हासिल की और एक कस्बे में हकीम का काम करने लगे । उसी दौरान उन्हें एक लड़की से इश्क़ हो गया और बात जब रुसवाई तक पहुंची तो मजरूह साहब को वो कस्बा छोड़कर जाना पड़ा।
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मजरूह सुल्तानपुरी ( फ़ाइल फ़ोटो) |
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उसके बाद मजरूह साहब को म्यूजिक सीखने का शौक चढ़ा तो उन्होंने एक म्यूजिक कॉलेज में एडमिशन ले लिए किंतु इनके पिता जी को ये अच्छा ना लगा । जिसके कारण उन्हें ये शौक भी छोड़ना पड़ा।
उसके बाद मजरूह सुल्तानपुरी ने 1935 में शायरी शुरू कर दी इनका तरन्नुम बेहतरीन होने के कारण इनको बड़े शायरों से तवज्जों मिलने लगा। राज मुरादाबादी और खुमार बाराबंकी जैसे शायर इनको मुशायरे का रोशनी बताने लगे।
कई बड़े फिल्मों में लिखें गीत..
एक बार मजरूह सुल्तानपुरी मुंबई के एक मुशायरे में थे तभी फिल्म निर्माता एआर कारदार ने उन्हें अपने फिल्मों के लिए गाने लिखने के लिए ऑफर किया किंतु मजरूह ने माना कर दिया फिर बाद में जिगर मुरादाबादी के कहने पर इन्होंने ने गीत लिखना शुरू कर दिया।
मजरूह साहब के लिखे गीत . ‘आरज़ू’ के सभी गीत सुपरहिट हुए. ‘ए दिल मुझे ऐसी जगह ले चल, जहां कोई न हो’, ‘जाना न दिल से दूर’, ‘आंखों से दूर जाकर’, ‘कहां तक हम उठाएं गम’ और ‘जाओ सिधारो हे राधे के श्याम’ जैसी सुपर हिट गीत लिखे।
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मोहम्मद रफ़ी, लता मंगेश्कर और मजरूह सुल्तानपूरी ( फाइल फ़ोटो) |
हक़ की लड़ाई के लिए नेहरू सरकार ने मजरूह को भेजा जेल..
उस दौर में मजरूह साहब का कैरियर उरूज पर था । जहां फिल्मों के लिए एक से बढ़कर एक गीत लिख रहे थे। तभी मुंबई में मजदूरों का हड़ताल हो गया वहां पर मजरूह सुल्तान पूरी ने एक ऐसा गीत पढ़ा जो की नेहरू सरकार ने मजरूह को सीधा जेल पहुंचा दिया। जेल से बाहर आने के लिए सरकार ने कहा कि अपना गीत वापस ले लो आपको जेल से रिहा कर दिया जाएगा किंतु मजरूह साहब को अपना कलम झुकना गवारा ना समझा इसके बदले में उन्हें 2 साल की सज़ा सुनाई गई ।
सत्ता के सीने पर चढ़कर इंकलाब का ज़ोर लोगो के अंदर पैदा करने लगे। उन्हें इंकलाबी शायर के तौर पर जाने जाना लगा। इनके एक शेर को जो आज का बच्चा बच्चा पढ़ता हैं।
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया।
इन्होंने ने ग़ज़ल और शेर को अपने अंदाज़ में तराशा और लोगो तक पहुंचाया। दर्जनों देशों का दौरा किया।
और 24 मई 2000 को फेफड़े का मरीज़ होने के कारण मुंबई के एक अस्पताल में दुनियां को अलविदा कह दिया था।
आइए जानते है मजरूह सुल्तानपुरी के 11 रूहानी गजलें और शेर..
1. जला के मिशअल-ए-जाँ हम जुनूँ-सिफ़ात चले
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले
दयार-ए-शाम नहीं मंज़िल-ए-सहर भी नहीं
अजब नगर है यहाँ दिन चले न रात चले
हमारे लब न सही वो दहान-ए-ज़ख़्म सही
वहीं पहुँचती है यारो कहीं से बात चले
2. कोई हम-दम न रहा कोई सहारा न रहा
हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा
शाम तन्हाई की है आएगी मंज़िल कैसे
जो मुझे राह दिखा दे वही तारा न रहा
क्या बताऊँ मैं कहाँ यूँही चला जाता हूँ
जो मुझे फिर से बुला ले वो इशारा न रहा।
3. हमारे बा’द अब महफ़िल में अफ़्साने बयाँ होंगे
बहारें हम को ढूँढेगी न जाने हम कहाँ होंगे
इसी अंदाज़ से झूमेगा मौसम जाएगी दुनिया
मोहब्बत फिर हसीं होगी नज़ारे फिर जवाँ होंगे
न हम होंगे न तुम होगे न दिल होगा मगर फिर भी
हज़ारों मंज़िलें होंगी हज़ारों कारवाँ होंगे।
4. मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया।।
5. बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए
हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते।
6. बचा लिया मुझे तूफ़ाँ की मौज ने वर्ना
किनारे वाले सफ़ीना मिरा डुबो देते।।
7. ज़बाँ हमारी न समझा यहाँ कोई ‘मजरूह’
हम अजनबी की तरह अपने ही वतन में रहे।।
8. ‘मजरूह’ क़ाफ़िले की मिरे दास्ताँ ये है
रहबर ने मिल के लूट लिया राहज़न के साथ।।
9. बढ़ाई मय जो मोहब्बत से आज साक़ी ने
ये काँपे हाथ कि साग़र भी हम उठा न सके।।
10. गुलों से भी न हुआ जो मिरा पता देते
सबा उड़ाती फिरी ख़ाक आशियाने की।।
11. ऐसे हंस हंस के न देखा करो सब की जानिब
लोग ऐसी ही अदाओं पे फ़िदा होते हैं।।
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