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उसके बाद एफ. ए. स्कॉच ( F.A Scach) स्कूल लाहौर से बीए ( BA) में दाखिला लिया। उसके बाद 1899 में अल्लामा इक़बाल ने दर्शनशास्त्र ( philosphy) में एमए ( M.A) की डिग्री हासिल की , उसके बाद उसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर बन गए। कुछ साल प्रोफेसर का काम करने के बाद इक़बाल उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड ( engaland) चले गए और वहां कैंब्रिज में दाखिला लिया। जिसके बाद दर्शन शास्त्र ( philosphy) में उच्च शिक्षा की डिग्री हासिल कि। पीएचडी ( PHD) के शोध के लिए ईरान और इर्तिका भी गए और अपनी पीएचडी पूरी कि। PHD कि डिग्री पूरी करने के बाद डॉ. अल्लामा इक़बाल बन गए, इक़बाल ने लंदन ( England) से ही बैरिस्ट्री (वकालत) की भी पढ़ाई पूरी कि और डिग्री हासिल करने के बाद लाहौर आ गए जहां गवर्मेंट कॉलेज में प्रोफ़ेसर नियुक्त किए गए, और लगे हाथ वकालत भी करते रहें। लेकिन कॉलेज में दो काम एक साथ करने की अनुमति नहीं थी, तो इक़बाल ने प्रोफ़ेसर की नौकरी छोड़ दी और वकालत को अपना पेशा बना लिया।
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डॉ. अल्लामा इक़बाल pic ( social media) |
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डॉ. अल्लामा इक़बाल ने कम उम्र में ही शायरी शुरू कर दी थीं , सन 1890 के एक मुशायरे में इक़बाल महज़ 17 साल कि उम्र में ये नज़्म पढ़ कर "मोती समझ के शान–ए–करीमी ने चुन लिए " को पढ़कर उस दौर के बड़े बड़े शायरों को चौंका दिया, अपना कद ऊंचा कर लिया, उसके बाद इक़बाल को जलसों से भी बुलावा आने लगा और अंजुमन के जलसे में अपनी मशहूर नज़्म "नाला –ए –यतीम" पढ़ी जो लोगों में काफ़ी ज्यादा पॉपुलर हुई, और यतिमों की सहायता के लिए इस नज़्म पर रूपयों की बारिश होने लगीं, और सुनने वालों के आंखों से आंसू बहनें लगी। इस नज़्म को पढ़ने के बाद इक़बाल जलसों और मुशायरों का ज़रूरी हिस्सा बन गए। इक़बाल की शायरी लोगों के जुबां पर चढ़ गई। और इक़बाल का रुतबा बहुत ऊंचा हो गया।
पढ़ाई के दौरान इक़बाल कुछ साल शायरी से दूर रहें लेकिन दुबारा जब शायरी की दुनियां में लौटे तो कौमी–ओ –मिल्ली नज्मों और शायरी का सिलसिला शुरू किया , जो इस्लाम का परचम बुलंद करने के लिए पूरी दुनियां में शोहरत का जरिया बना। उसमें तुलुअ –ए –इस्लाम, शिकवा, शम्मा–ओ–शायर अंजुमन के जलसों में पढ़ी। डॉ. अल्लामा इक़बाल जलसों में अपने शेर और नज़्म से मुसलमानों में ईमान की रोशनी जलाते थे, और इस्लाम के सही मायने में मतलब समझाते थे। और इस्लाम के आख़िरी पैगंबर मोहम्मद साहब का हमेशा जिक्र करते थे और मुसलमानों को इनकी अहमियत बताते थे।
इसी दौरान अल्लामा इक़बाल ने जवाब –ए–शिकवा नाम से एक नज़्म लिखीं जिसके आखिरी मिसरा में ये लिखा की...
"कि मोहम्मद से वफा तूने तो हम तेरे हैं
ये जहां क्या चीज़ लौह–ओ–कलम तेरे हैं "
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इस नज़्म की आख़िरी शेर से डॉ. अल्लामा इक़बाल को इस्लामी दुनियां में इतना शोहरत मिली जो आज तक किसी शायर को नहीं मिली, बड़े बड़े उलेमाओं ने तो यहां तक कह दिया कि खुदा इस शेर के बदले इक़बाल के सारे गुनाहों को माफ़ फरमा दिया होगा।
इक़बाल की शायरी दुनियां और अखिरत की रोशनी हैं, जो लोगो में जुनून की अलख जलाती हैं। जब इक़बाल पढ़ाई पूरी कर के वतन लौटे तो अंग्रेजो द्वारा अखंड भारत पर जुल्म कर रहे थे , तो इक़बाल ने एक शेर के ज़रिए हिन्दुस्तानियों में इंकलाब पैदा किया और लिखा की..
"वतन की फ़िक्र कर नादां मुसीबत आने वाली है
तेरी बरबादियों के चर्चे हैं आसमानों में
ना समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तां वालों
तुम्हारी दास्ताँ तक न होगी दास्तानों में "
अल्लामा इक़बाल को शादी. marriage of allama iqbal
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डॉ. अल्लामा इक़बाल ने अपनी पूरी जिदंगी में 3 शादियां की ..
पहली शादी – करीम बीबी से किया जिससे एक बेटी मिराज़ बेगम और एक बेटा आफताब इक़बाल पैदा हुए.
दूसरी शादी – सरदार बेगम से किया जिससे अल्लामा इक़बाल को एक और बेटे जावेद इकबाल हुए.
तीसरी शादी – मुख्तार बेगम से की लेकिन इनसे कोई संतान न मिल सका।
डॉ. अल्लामा इक़बाल की मृत्यु कैसे हुई?
How did Dr.allama iqbal die?
कहां जाता है 1935 ई. को डॉ. अल्लामा इक़बाल ने ईद के दिन सेवईयां खाई और उसके बाद से ही उनका गला बैठ गया, और गले में अल्सर (Ulcer) बन गया काफ़ी इलाज़ कराया लेकिन कोई फ़ायदा न हुआ , आवाज़ पूरी तरह से बंद हो गई, वकालत का काम भी छोड़ दिए, और इसी बीच इक़बाल की दूसरी बीवी का इंतकाल हो गया और एक साथ इक़बाल पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा, दमा के दौरे पड़ने लगे खासते खासते बेहोश हो जाते थे, इक़बाल साहब की सेहत पूरी तरह से बिगड़ गई और आखिरकार 21 अप्रैल 1938 को इस दुनियां–ए –फानी से रुखसत हो गए।
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अल्लामा इक़बाल को कई नाम से जाना जाता हैं।
1.विद्वान् इक़बाल
2.मुफ्फकिर-ए-पाकिस्तान
( पाकिस्तान का विचारक )
3.शायर-ए-मशरीक
(पूरब का शायर)
4.हकीम-उल-उम्मत
( उम्मा का विद्वान् )
और भी कई नामों से जाना जाता हैं.
डॉ. अल्लामा इक़बाल के शेरों से अंग्रेज़ी हुकूमत प्रभावित होकर इनको "सर" की उपाधि से सम्मानित किया।
सारे जहां से अच्छा , Sare jaha se achchha
अंग्रेज़ी हुक़ूमत के दौरान अल्लामा इक़बाल ने हिंदुस्तान के लिए "तराना ए हिंद" नाम से नज़्म लिखी जो आज देश भक्ति का रूप ले चुका हैं जिसे पूरी हिंदुस्तान में पढ़ा जाता है।
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा ..
हम बुलबुले है इसके ये गुलसिता हमारा..
गुरबत में हो हम तो रहता है दिल वतन में..
समझो हमे वहीं जहां दिल हो हमारा..
सारे जहां से अच्छा.........
परबत वो सबसे ऊँचा , हमसाया आसमाँ का
वो संतरी हमारा वो पासबाँ हमारा
गोदी में खेलती हैं, उसकी हज़ारों नदियाँ।
गुलशन है जिनके दम से, रश्क-ए-जिनाँ हमारा
सारे जहां से अच्छा....
मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम वतन हैं, हिन्दोस्ताँ हमारा
यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा, सब मिट गए जहाँ से।
अब तक मगर है बाक़ी, नाम-ओ-निशाँ हमारा
सारे जहां से अच्छा....
कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़माँ हमारा
‘इक़बाल’ कोई महरम, अपना नहीं जहाँ में।
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहाँ हमारा
सारे जहां से अच्छा...
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लब पे आती है दुआ बन के. Lab pe aati hai dua ban ke
लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी
ज़िंदगी शम्अ की सूरत हो ख़ुदाया मेरी
दूर दुनिया का मिरे दम से अँधेरा हो जाए
हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए
हो मिरे दम से यूँही मेरे वतन की ज़ीनत
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत
ज़िंदगी हो मिरी परवाने की सूरत या-रब
इल्म की शम्अ से हो मुझ को मोहब्बत या-रब
हो मिरा काम ग़रीबों की हिमायत करना
दर्द-मंदों से ज़ईफ़ों से मोहब्बत करना
मिरे अल्लाह! बुराई से बचाना मुझ को
नेक जो राह हो उस रह पे चलाना मुझ को।
अल्लामा इक़बाल के मशहूर शेर. Sher of Allama Iqbal.
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1. सितारों के आगे जहां और भी है ।
अभी इश्क़ के इंतेहा और भी हैं।।
2. माना कि तेरे दीद के काबिल नही हु मैं
तू मेरा शौक देख मेरा इंतज़ार देख।।
3. तू शाही है परवाज़ काम तेरा।
तेरे आगे आसमा और भी हैं।।
4. हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे नूरी पर रोती हैं।
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।।
5. इल्म में वो शुरूर है लेकिन।
ये वो जन्नत जिसमें हूर नहीं।।
6. हया नही है बाकी जमाने की आंखों में
खुदा करे तेरी जवानी रहे बे दाग।।
7. जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी।
उस खेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो।।
8. बातिल से दबने वाले ए आसमा नही है हम।
सौ बार ले चुका है तू इंतेहा हमारा।।
9. बुतों से तुझको उम्मीद खुदा से ना उम्मीदी।
मुझे बता तो सही और काफिरी क्या हैं।।
10. ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले।
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है।।
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