Mir taqi mir shayari : मीर तकी मीर के 11 बड़ी गजलें पढ़िए..

Mir taqi Mir : दोस्तों आज के लेख में उर्दू अदब के सबसे बड़े शायर जिन्हे खुदा ए सुखन ( शायरी के खुदा ) कहां जाता हैं। मीर तकी मीर को उर्दू गज़ल का जनक कहा जाता हैं, Mir taqi Mir की गजलें दिल को सुकून और ठंडक देती हैं। इनकी शायरी के कायल मिर्ज़ा ग़ालिब भी थे, मिर्ज़ा ग़ालिब ने तो यह तक कह दिया था की रेख्ते के तुम ही उस्ताद नही हो गालिब
कहते है अगले जमाने में कोई मीर भी था। आइए जानते है मीर तकी मीर के मशहूर गजलें... 



Mir Taqi Mir shayari 





• अब जो इक हसरत-ए-जवानी है
उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है

रश्क-ए-यूसुफ़ है आह वक़्त-ए-अज़ीज़
'उम्र इक बार-ए-कारवानी है

गिर्या हर वक़्त का नहीं बे-हेच
दिल में कोई ग़म-ए-निहानी है

उस की शमशीर तेज़ है हमदम
मर रहेंगे जो ज़िंदगानी है

हम क़फ़स-ज़ाद क़ैदी हैं वर्ना
ता चमन एक पर-फ़िशानी है

ख़ाक थी मौजज़न जहाँ में और
हम को धोका ये था कि पानी है

याँ हुए मीर तुम बराबर ख़ाक
वाँ वही नाज़ ओ सरगिरानी है




• रंज खींचे थे दाग़ खाए थे
दिल ने सदमे बड़े उठाए थे

वही समझा न वर्ना हम ने तो
ज़ख़्म छाती के सब दिखाए थे

अब जहाँ आफ़्ताब में हम हैं
याँ कभू सर्व ओ गुल के साए थे

कुछ न समझे कि तुझ से यारों ने
किस तवक़्क़ो पे दिल लगाए थे

फ़ुर्सत-ए-ज़िंदगी से मत पूछो
साँस भी हम न लेने पाए थे

मीर साहब रुला गए सब को
कल वे तशरीफ़ याँ भी लाए थे




• दिल गए आफ़त आई जानों पर
ये फ़साना रहा ज़बानों पर

इश्क़ में होश ओ सब्र सुनते थे
रख गए हाथ सो तो कानों पर

गरचे इंसान हैं ज़मीं से वले
हैं दिमाग़ उन के आसमानों पर

शहर के शोख़ सादा-रू लड़के
ज़ुल्म करते हैं क्या जवानों पर

अर्श ओ दिल दोनों का है पाया बुलंद
सैर रहती है उन मकानों पर

जब से बाज़ार में है तुझ सी मता'
भीड़ ही रहती है दुकानों पर

लोग सर देने जाते हैं कब से
यार के पाँव के निशानों पर

कजी औबाश की है वो दर-बंद
डाले फिरता है बंद शानों पर

थे ज़माने में ख़र्ची जिन की रुपे
फाँसा करते हैं उन को आनों पर

ग़म ओ ग़ुस्सा है हिस्से में मेरे
अब मईशत है उन ही खानों पर

कोई बोला न क़त्ल में मेरे
मोहर की थी मगर दहानों पर




• जिस जगह दौर-ए-जाम होता है
वाँ ये आजिज़ मुदाम होता है

तेग़ नाकामों पे न हर दम खींच
इक करिश्मे में काम होता है

पूछ मत आह आशिक़ों की मआश
रोज़ उन का भी शाम होता है

ज़ख़्म बिन ग़म बिन और ग़ुस्सा बिन
अपना खाना हराम होता है

शैख़ की सी ही शक्ल है शैतान
जिस पे शब एहतेलाम होता है

क़त्ल को मैं कहा तो उठ बोला
आज कल सुब्ह-ओ-शाम होता है

मीर साहब भी उस के हाँ थे पर
जैसे कोई ग़ुलाम होता है



• लड़ के फिर आए डर गए शायद
बिगड़े थे कुछ सँवर गए शायद

सब परेशाँ दिली में शब गुज़री
बाल उस के बिखर गए शायद

हैं मकान ओ सरा ओ जा ख़ाली
यार सब कूच कर गए शायद

कुछ ख़बर होती तो न होती ख़बर
सूफि़याँ बे-ख़बर गए शायद

आँख आईना-रू छुपाते हैं
दिल को ले कर मुकर गए शायद

अब कहीं जंगलों में मिलते नहीं
हज़रत-ए-ख़िज़्र मर गए शायद

लोहू आँखों में अब नहीं आता
ज़ख़्म अब दिल के भर गए शायद

बे-कली भी क़फ़स में है दुश्वार
काम से बाल ओ पर गए शायद

शोर बाज़ार से नहीं उठता
रात को मीर घर गए शायद




• तीर जो उस कमान से निकला
जिगर मुर्ग़-ए-जान से निकला

निकली थी तेग़ बे-दरेग़ उस की
मैं ही इक इम्तिहान से निकला

गो कटे सर कि सोज़-ए-दिल जों शम्अ'
अब तो मेरी ज़बान से निकला

आगे ऐ नाला है ख़ुदा का नाँव
बस तो न आसमान से निकला

दिल से मत जा कि हैफ़ उस का वक़्त
जो कोई उस मकान से निकला

उस की शीरीं-लबी की हसरत में
शहद पानी हो शान से निकला

चश्म-ओ-दिल से जो निकला हिज्राँ में
न कभू बहर-ओ-कान से निकला




• हस्ती अपनी हबाब की सी है
ये नुमाइश सराब की सी है

नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

चश्म-ए-दिल खोल इस भी आलम पर
याँ की औक़ात ख़्वाब की सी है

मैं जो बोला कहा कि ये आवाज़
उसी ख़ाना-ख़राब की सी है

बार बार उस के दर पे जाता हूँ
हालत अब इज़्तिराब की सी है

देखिए अब्र की तरह अब के
मेरी चश्म-ए-पुर-आब की सी है

आतिश-ए-ग़म में दिल भुना शायद
देर से बू कबाब की सी है




• उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं हम को अबस बदनाम किया

हर्फ़ नहीं जाँ-बख़्शी में उस की ख़ूबी अपनी क़िस्मत की
हम से जो पहले कह भेजा सो मरने का पैग़ाम किया

सरज़द हम से बे-अदबी तो वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उस की ओर गए पर सज्दा हर हर गाम किया

काश अब बुर्क़ा मुँह से उठा दे वर्ना फिर क्या हासिल है
आँख मुँदे पर उन ने गो दीदार को अपने आम किया

सुब्ह चमन में उस को कहीं तकलीफ़-ए-हवा ले आई थी
रुख़ से गुल को मोल लिया क़ामत से सर्व ग़ुलाम किया

किस का काबा कैसा क़िबला कौन हरम है क्या एहराम
कूचे के उस के बाशिंदों ने सब को यहीं से सलाम किया

ऐसे आहु-ए-रम-ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल थी
सेहर किया ए'जाज़ किया जिन लोगों ने तुझ को राम किया



• क्या कहूँ तुम से मैं कि क्या है इश्क़
जान का रोग है बला है इश्क़

इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो
सारे आलम में भर रहा है इश्क़

गर परस्तिश ख़ुदा की साबित की
किसू सूरत में हो भला है इश्क़

इश्क़ है तर्ज़ ओ तौर इश्क़ के तईं
कहीं बंदा कहीं ख़ुदा है इश्क़

है हमारे भी तौर का आशिक़
जिस किसी को कहीं हुआ है इश्क़

कोई ख़्वाहाँ नहीं मोहब्बत का
तू कहे जिंस-ए-ना-रवा है इश्क़




• ऐसा तिरा रहगुज़र न होगा
हर गाम पे जिस में सर न होगा

क्या इन ने नशे में मुझ को मारा
इतना भी तू बे-ख़बर न होगा

धोका है तमाम बहर दुनिया
देखेगा कि होंट तर न होगा

दशनों से किसी का इतना ज़ालिम
टुकड़े टुकड़े जिगर न होगा

अब दिल के तईं दिया तो समझा
मेहनत-ज़दों के जिगर न होगा

आ ख़ाना-ख़राबी अपनी मत कर
क़हबा है ये उस से घर न होगा

हो उस से जहाँ सियाह तद भी
नाले में मिरे असर न होगा

दुनिया की न कर तू ख़्वास्त-गारी
उस से कभू बहरा-वर न होगा






• रात प्यासा था मेरे लोहू का
हूँ दिवाना तिरे सग को का

है मिरे यार की मिसों का रश्क
कुश्ता हूँ सब्ज़ा-ए-लब-ए-जू का

बोसा देना मुझे न कर मौक़ूफ़
है वज़ीफ़ा यही दुआ-गो का

मैं ने तलवार से हिरन मारे
इश्क़ कर तेरी चश्म-ओ-अबरू का

इत्र-आगीं है बाद-ए-सुब्ह मगर
खुल गया पेच-ए-ज़ुल्फ़ ख़ुश्बू का

एक दो हूँ तो सहर-ए-चश्म कहूँ
कारख़ाना है वाँ तो जादू का

नाम उस का लिया इधर-ऊधर
उड़ गया रंग ही मिरे रू का


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